Chanakya Niti kavya anuvad Chapter 8

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अधम हैं करते धन की चाहत,
मध्यम चाहे धन व शान ।
उत्तम मान की इच्छा रखते,
व्यर्थ शान, धन, गर नहीं मान ।

ईख, दूध, जल, फल, औषध को
खाकर भी करें स्नान, दान |
यह नहीं धर्म से विमुख काम,
गर इससे मन में हो आराम ।

दीपक खाकर तम रजनी का,
पैदा करता कालिख काजल ।
जैसा खाता अन्न जो जन
वैसी संतान का पाये फल ।

कोटि चांडालों से बढ़कर एक यवन है,
यवन से बढ़कर कोई नीच न दूजा ।
ऐसा कहते तत्व ज्ञान के ज्ञानी ज्ञाता
नीच की संगति संग नहीं यह कहे विधाता ।

गुणी को ही अर्थ दान हैं देते ज्ञानी,
नहीं अवगुणी को है दान कभी वे देते ।
दान गुणी को कई गुना हो आता वापस,
जैसे जल का दान मेघ सागर से लेते ।
इसी दान से मधुमय वर्षा पाती धारा,
जीव चराचर इसी दान से जीवन पाते ।
कई कोटि बढकर पुनः जल यह,
सागर में जलधारा बनके लौट के जाते ।

तेल की मालिश और हजामत
धूम्र चिता का लग जाने पर ।
त्रिया संग मैथुन करने पर,
बिन स्नान चांडाल रहे नर ।

अपच में जल बनता औषध सा,
पचने पर यह बल ही बल दे ।
भोजन करत समय में अमृत,
भोजन अंत में विष
फल दे।

कर्म बिना ज्ञान व्यर्थ हो जाता,
ज्ञान बिना नर नष्ट हो जाता ।
पति बिन पत्नी भ्रष्ट हो जाती,
नायक बिन सेना मर जाती ।

आया बुढ़ापा मरी जिनकी नारी,
क्षुधा हेतु जो है पर आहारी ।
धन जिनका अपना हथियाया बंधु,
पाते पुरुष ये दुखों का सिंधु ।

व्यर्थ वेद गर अग्निहोत्र नहीं,
दान बिना नहीं यज्ञ कर्म है ।
भाव बिना नहीं कोई सिद्धी,
सब का कारण भाव मर्म है।

नहीं देवता वास है करते,
पत्थर, काठ, मिट्टी मूरत में ।
मन के भाव में सदा बिराजे,
अतः देव मन की सूरत में ।

धातु, काठ, पाषाण मूरत को,
श्रद्धा भाव से पूजे जब जन ।
विष्णु कृपा करते हैं जब
अभीष्ट सिद्धि होती है तब ।

न तप कोई शांति जैसा,
तुष्टि सा सुख कर्म नहीं है ।
तृष्णा सा नहीं व्याधि कोई,
दया से बढकर धर्म नहीं है।

क्रोध स्वयं है यमलोक राजा,
तृष्णा बैतरणी की भांति ।
विद्या कामधेनु के जैसा,
तृप्ति नंदन वन सा गिनाती ।

गुण से रूप है पाता शोभा,
शील से कुल है होता शोभित ।
सिद्धि से विद्या की शोभा,
धन को भोग करे विभूषित ।

बिन गुण रूप न शोभा पाता,
शीलहीन से कुल नहीं शोभे ।
व्यर्थ है विद्या बिन सिद्धी के,
व्यर्थ धन जिसको नहीं भोगे ।

भूमिगत जल त्रिया पतिव्रता,
राजा कल्याण कारक जो ।
विप्र संतोषी ए सब पावन,
ये सब जग का तारक हो ।

सलज्ज गणिका, निर्लज्ज कुल त्रिया,
राजा वह संतोषी जो ।
नीच अधम कहलाते हैं ये,
विप्र जो असंतोषी हो ।

बड़ा कुल से क्या होता है,
विद्या हीन अगर जन जिसका ।
कुल र विज्ञ सभी हो,
देवतुल्य है सब जन उसका ।

यश विद्वान ही पाता जग में,
गौरव पाता हर सतहो पे ।
विद्या देती सब धन सब कुछ,
पूजी जाती हर जगहों पे ।

मांसाहारी, मद्यप, मूरख,
पुरुष वह जो पशु समान ।
इनके पाप भार से हरदम,
रोए धारा और जहान ।

अन्नहीनता राष्ट्र जलाए,
मंत्रहीनता पुरोहित मन ।
दानहीनता यजमान तन,
यज्ञ की त्रुटि नाशे सब जन ।

रूपयौवन से पूर्ण बड़ा कुल में जन्मा भी,
विद्याहीन मनुष्य नहीं शोभे वैसे ।
फूल पलाश वृक्ष में आता सुंदर सुंदर,
बिना गंध के होने से नहीं भाता जैसे ।

See also  Chanakya Niti Complete Chapter Seven In English

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