Chanakya Niti kavya anuvad Chapter 4

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आयु कर्म, मरण, धन, विद्या, मां के गर्व से ही नर पाता। जैसे जीव है गर्भ में आता, पांच ये बातें लिखें विधाता ।

साधुजन से अलग हो जाते, पुत्र मित्र और भाई बंधु । जो संगति करता है उनकी, उनका कुल हो पुण्य की सिंधु ।

दर्शन ध्यान और स्पर्श से, मछली कछुआ पक्षी क्रमशः । पालते संतति अपनी जैसे, सज्जन संगति भी है वैसे।

जब तक यौवन, दूर है मृत्यु, अपना हित, पुण्य कर लो हे जन ! प्राण का अंत हो जाएगा जब कुछ न करेगा है! जन का मन ।

विद्या गुणी कामधेनु सा असमय में यह फलदायक है । प्रदेश में यह माता सा गुप्त धन सा सुख दायक है।

पुत्र एक हो पर गुणी हो, सौ निर्गुणी से यह उत्तम । चंद्र अकेला नाशे तम को, तारे कोटि मिल हरे नहीं तम ।

मूरख बेटा चिरजीवी हो, उससे अच्छा जाए वह मर । मरा पुत्र दुख देता कुछ दिन, पर कुपुत्र देता जीवन भर ।

कुलहीन सेवा, कुग्राम बसना, कुभोजन, क्रोध मुखी हो भार्या । मूर्ख बेटा, विधवा सुपुत्री, अग्नि बिना 6 डाहे काया ।

दूध ना देती ना हो गाभिन, उस धेनु से लाभ न जैसे । न विद्वान न भक्तिमान हो, ऐसा पुत्र निरर्थक वैसे ।

सांसारिक दुख की अग्नि में, जलत पुरुष का तीन सहारा । सज्जन संगति पत्नी अपनी, अपना लड़का लगता प्यारा

राजा की आज्ञा कन्यादान, पंडित वचन न बारंबार । अचल अटल है ये तीन बातें, जुग जुग से जाने संसार ।

तप के लिए अकेला जन हो, दो जन उचित पढ़ाई में । गायन में त्रिजन उचित हो, बहुजन उचित लड़ाई में । 5 जनों से खेती उत्तम, मार्ग गमन हेतु हो चार जन ।

भार्या वही जो पुनीत पावन, भार्या वही जो रखे पति व्रत को । भार्या वही जो पति को प्यारी, भार्या वही जो बोले सत्य को ।

पुत्र बिना घर लगता सूना, शून्य दिशाएं बंधु बिना शून्य हृदय है मूर्ख जनों का, निर्धनता में सब कुछ सूना ।

बिन अभ्यास को शास्त्र जहर है, अपच में भोजन जहर समान सभा विष है दीन-हीन की, वृद्ध को तरुणी कहर समान ।

तजें धर्म वह दयाहीन जो, गुरु तजे जो विद्या हीन । त्यागे पत्नी क्रोधमुखी जो, बंधु तुझे जो नेह विहीन ।

राह बनाता बूढ़ा मनुज को, बंधन घोड़ा का बुढ़ापा । बिन मैथुन हो बूढ़ी नारी, धूप ले आए वस्त्र बुढ़ापा ।

बुद्धिमान जन को ए निरंतर, सोचना चाहिए बारंबार । कैसा समय बीत रहा है, कौन-कौन हैं मित्र हमार | रहने का स्थान है कैसा, क्या है ब्यय और क्या आय। कौन हूं मैं, शक्ति है कितनी, जो सोचे नहीं वह पछताय ।

द्विज जनों का अग्नि ईश्वर, मुनी अपने मन में हैं पाते । अल्प बुद्धि वाले मूरत में, समदर्शी को हर सूरत में ।

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