गुरु की संगति से नहीं विद्या है पाया जो, पुस्तक पढ़कर स्वयं ही विद्या पाया है सो । नहीं समाज में आदर पाता है वह वैसे, व्यभिचारी नारी शोभा पाती है जैसे ।
उपकार उपकारी के संग, पाप न हिंसा, हिंसक के संग । करें दुष्टता दुर्जन के संग शांत है करता जंग को जंग |
बहुत दूर पर स्थित है वस्तु जो, नहीं आराधना से जिसको पा सकता है जन । तप के बल से वह वस्तु पा सकता है नर, सबसे सबल सर्वश्रेष्ठ है तप बल का धन ।
सब दोषों से लोभ बड़ा है, लोभ ले आए सब दोषों को । पाप न कोई चुगली जैसा, चुगलखोर करे पापों को ।
नहीं तपस्या सत्य का जैसा, शुद्ध मन है तीर्थ ऐसा । गुणों में उत्तम सज्जनता, अवगुण में दुर्जन दुर्जनता । यश कृति सा नहीं आभूषण विद्या सा नहीं कोई धन । अपयश मृत्यु सा है उनको, जो है मानित सम्मानित जन
रत्नाकर है पिता शंख का लक्ष्मी सगी बहन है जिसकी । साधु संग है भीख मांगता, अद्भुत बातें देखो उसकी । बिना दान नहीं धन कोई पाए, भले शंख सा कुल मिल जाए। अपना कर्म का फल नर पाए, कर्म के जैसा धन है आए ।
निर्बल जन साधु बनता है, निर्धन बनता है ब्रह्मचारी । दुखी देव भक्त बनता है, पतिव्रता हो बूढी नारी ।
दान न दूजा अन्न व जल सा, द्वादशी सा नहीं तिथि उत्तम । गायत्री सा मंत्र न दूजा, मां से देव नहीं सर्वोत्तम ।
विष सांप के दांत में रहता, मक्खी के रहता यह सिर में । बिच्छू पुंछ में रहता है यह, दुर्जन के सारे शरीर में ।
व्रत और उपवास करे बिन आज्ञा पति की, कुल का बने कलंक कुटिल और कुविचारी । घोर नर्क को पाती कुलटा स्वयं सदा यह, स्वामी की आयु भी हरती ऐसी नारी ।
पीने पर व पांव धोने पर बचता जो जल, संध्या करने पर जो जल शेष रह जाए। श्वान मूत्र सा होता ये जल इसे न पए । पीने पर चंद्रायण व्रत हीं शुद्धि लाए ।
न दान न उपवास व तीर्थाटन, शुद्ध बनाए कुलटा नारी । पति के चरणोदक से शुद्धि, पति से प्रेम, पति को प्यारी ।
दान से पाणि, न कंगन से, मान से तृप्ति, न भोजन से । ज्ञान से मुक्ति न मुंडन से, स्नान से शुद्धि, न चंदन से ।
हजामत नाई के घर जा जो बनवाए, पत्थर पर चंदन घिसकर जो टीका लगाए । पानी में अपने मुख का प्रतिबिंब जो देखे, इंद्र श्री भी इन कर्मों से फींका हो जाए।
कुंदरू का सेवन शीघ्र है हरता बुद्धि, वच का सेवन झटपट बुद्धि को है लाता । तन की शक्ति शीघ्र है हरता नारी का तन, दूध सेवन से बल तन में है जल्दी आता ।
जागृति जिनके हो हृदय में, सदा भावना परोपकार की। पग पग पर प्राप्त संपत्ति हो, विपत्ति सब नष्ट होती उनकी ।
धन और सुलक्षणा त्रिया जिस घर में हो, पुत्र विनयी हो, गुण युक्त हो, चरित्रवान भी । पुत्र के पुत्र सुपुत्र विराजे जिस घर में, उसके आगे व्यर्थ स्वर्ग का अतुल मान भी ।
भोजन, निद्रा, भय व मैथुन, पशु मनुज में एक समान । ज्ञान दोनों में करता अंतर, ज्ञानहीन जन पशु समान ।
मद से अंधा गजराज के बहते मद को, भंवरा पीने हेतु जब मस्तक पर आए । कानों की चोटों से तब वह मार मार के, भंवरों को अपने मस्तक से दूर भगाए । इससे भंवरों को नहीं होती कोई हानि, मद का रस नहीं पी, कमल पर बैठे जाकर । पदा रस का पान करे और छटा बढ़ाए, मूर्ख हाथी बिन भंवरों के श्री नहीं पाए। इस तरह जब मूर्ख राजा गुनी जनों को, करता है अनादर तब श्री हीन हो जाए । आदर पाने हेतु गुणी को बहुत जगह है, केवल गुणी ही नृप को श्री युक्त बनाए ।
राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक और भिखारी । ग्राम-वंचक ये आठो जन समझ ना पाए पर दुख भारी ।
एक वृद्धा की झुकी कमर पर व्यंग किया एक तरुण आवारा । नीचे को क्या देख रही हो, क्या खोया है बोल तुम्हारा । चतुर वृद्धा ने कहा रे! मूरख, सुनो क्या मालूम होगा तुझको । यौवन का मोती खोया है, उसको ढूंढ क्या देगा मुझको ।
सभी दोषों को नाश है करता, एक ही गुण गर है सर्वोत्तम । केतक पुष्प में दोष अनेको, मात्र गुण के कारण उत्तम । सांप का घर है, फल रहित है, टेढी, पंकज, कांटेदार है। नहीं आसानी से मिलती पर, गंध के कारण सबको प्यार है ।
धन-संपत्ति प्रभुत्व, जवानी, विवेकहीनता, इन चारों में से हरेक दारुण अनर्थ है । अतुल नाश के लिए बहुत है एक अकेला, चारो मिलकर महानाश हेतु समर्थ है।