Chanakya Niti kavya anuvad Chapter 15

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ज्ञान, मोक्ष, जटा, भस्म की, नहीं कभी है उसे जरूरत । कष्ट देखकर किसी जीव का, मन जिनका हो दया की मूरत ।

एक अक्षर उपदेश कभी भी, गुरु से शिष्य यदि ले पाए। न कोई धन इस धारा पर, जिसको दे उऋण हो जाए।

दो विधि निपटें शठ, कांटा से, मुख तोड़ो बल प्रयोग कर । गर बल का अभाव खले तो, रहो दूर इनसे हट तज कर ।

मैला वस्त्र पहनने वाला, गंदे मैले दांतो वाला । अधिक भूख से भोजन वाला, निष्ठुर कर्कश वाणी वाला । सूर्योदय सूर्यास्त में सोता, विष्णु सा ही क्यों गुण । वैभव धन है नाश हो जाता, लक्ष्मी उससे करती दूरी ।

मित्र, सेवक, बंधु व भार्या, तजते जब नर होता निर्धन । धनी होने पर फिर अपनाते, अतः मनुष्य से उत्तम है धन ।

पाप कर्म से धन अर्जित जो, घर में रहता 10 वर्ष तक । वर्ष 11 ज्योंहि आता, मूल्य सहित यह नष्ट हो जाता ।

समर्थवान को अयोग्य वस्तु भी योग्य है होती, योग्य कार्य भी दुर्जन को अयोग्य हो जाए । राहु अमृत पीकर भी मृत्यु को पाए विष पीकर शिवशंकर मृत्युंजय कहलाए ।

ब्राह्मण भोजन पर जो बचता है भोजन, परहित हेतु सहानुभूति मर्म है सच्चा । निर्मल है वह ज्ञान न जिससे पाप है होता, दंभ रहित ही कर्म असल में धर्म है सच्चा ।

कांच सिर पर स्थित क्यों न, मणि भले ही पैर के आगे । क्रय विक्रय की बेला आती, मूल्य मणि का ज्यादा लागे ।

शास्त्र अनंत है, बहुत है विद्या, लघु जीवन का लघु है अवधि । इसमें भी है विघ्न बधाएं, अत: हंस सा गुण अपनाएं। दूध और पानी से जैसे, दूध है पीता पानी तजता । सार सभी का वैसा ही लें, तत्व ज्ञान से ही नर सजता ।

दूर से आए नर को, जन को, राह से थके हुए सज्जन को । घर पर आए मानव जन को, रखता इनको बिन भोजन को । भोजन स्वयं अकेला खाए. ऐसा नर चांडाल कहाए ।

चारों वेद शास्त्र अनेकों भी पढ़ कर के, आत्मा जिनकी न पहचाने बहुजन जैसे । कलछी रहे कड़ाही में दिन-रात हमेशा, नहीं पाक रस स्वाद कभी चखती है वैसे ।

द्विजमयी नौका इस जग में उल्टी रीति से है चलती नम्र को भवसागर पहुंचाए उग्र को नर्क आग में तलती ।

अमृत का घर अमृतमय तन, औषधि नायक, कान्तिमय मन । इन गुणों से युक्त चंद्र भी, निकट रवि के जाता है जभी । अपना तेज नहीं रख पाता, पर घर जाकर लघुता पाता । बिना बुलाए पर घर जाए, इसी तरह नर लघुता पाए ।

कमल के दल में जब भंवरा था, कमलिनी फल रस था पीता । विधि वश वह प्रदेश में जाकर, कटु पुष्प रस पी अब जीता।

अगस्त हो रुष्ट पी गए जनक सागर को, अति क्रोध में भृगु विप्र मारा था लात पति को । मेरी सौत सरस्वती की पूजा और मान हैं देते, तोड़े शिवपूजन हेतु मेरे घर कमल पत्ती को । कहती कमला सुनें नाथ! विप्र मेरे हैं दुश्मन, इनके घर नहीं करूं वास रहे सदा ये निर्धन ।

सब बंधन टूटता न टूटे, बांधे बंधन प्रीत की डोरी । काठ भी छेदने वाला भंवरा, छेदन पाता पंकज पंखुड़ी ।

गज त्यागे रतिक्रीड़ा बूढ़ा हो कर भी, कटने पर भी नहीं सुगंधी तजता चंदन । नहीं मीठापन त्यागे गन्ना पीस कर के भी, दीन भी होकर नहीं शील को तजते सज्जन ।

एक गिरि को धारण कर, कहलाते तुम गिरिधारी । तुम्हें हृदय में धारण कर, नहीं कहलाते हम त्रिपुरारी । कहे गोपियां सुन हे! केशव, भाग्य से नाम सदा चलता है। किया बहुत है पुण्य उसी को, मान और यश भी मिलता है।

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