Chanakya Niti kavya anuvad Chapter 12

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सदा आनंद रहे उस घर में, पुत्र जहां सुविचारी हो । इच्छित धन अतिथि सेवा, पति र पत्नी नारी हो । आज्ञा पालक सेवक नौकर, प्रतिदिन शिव का पूजन हो ।

मीठा भोजन मीठा जल हो, मित्र मंडली सज्जन हो । भूखे मन को ब्राह्मण जन को श्रद्धा पूर्वक, थोड़ा सा भी दान है देता जो नर जग में। थोड़ा कई गुना होकर उस को मिलता है, प्रभु कृपा से श्रद्धा ही जग में फलता है।

स्वजन संग उधार बने जो, दया दिखाए जो परिजन संग । साधु जन संग प्रेम रखे जो, करे दुष्टता शठ दुर्जन संग । अभिमानी हो खल के संग में, विद्वानों संग विनयशीलता । शौर्य दिखाए शत्रु जन संग, गुरुओं के संग सहनशीलता । कभी नहीं विश्वास करे जो नारी के संग। ऐसा नर की मर्यादा नहीं होती है भंग ।

दान दिया नहीं जिन हाथों ने, वेद शास्त्र का किया न श्रवण । साधु दर्शन किया नहीं जो, किया नहीं जो तीरथ भ्रमण । पाप के धन से पेट भरा वो, रहा घमंड में चूर सदा जो । ऐसा नीच जब मृत्यु पाए. गीदड़ भी नहीं इसको खाए ।

कृष्ण चरण में भक्ति नहीं है जिस पामर को, राधा यदुबाला गुणगान में रस नहीं जिनको । कृष्ण लीला की कथा नहीं है जिनको भांती, मृदंग भी धिक् ताल बोल धिक्कारे उनको ।

वृक्ष करील में पत्र नहीं बसंत करे क्या । सूरज का क्या दोष न देखे उल्लू दिन में । वर्षा का क्या दोष अगर बूंद पिए न चातक, विधि का लिखा ललाट मिटाए कौन कुदिन में ।

अच्छी संगत से दुर्जन भी बनता सज्जन, से पर खल संगत से साधु न बनता दुर्जन । नहीं गंध मिट्टी से फूल बने दुर्गंधी, किंतु फूल का गंध मिट्टी करे सुगंधी ।

साधु दर्शन धर्म पुण्य है, साधु संगत तीर्थ सामान । तीर्थ फलता अंत समय में, साधु संगत शीघ्र महान् ।

एक पथिक एक नगरवासी से प्रश्न किया यह, कौन बड़ा है इस नगर में मुझसे तू कह । वृक्ष ताड़ का बड़ा कहाए इस नगर में, कौन बड़ा है दानी बोलो इस शहर में । सबसे बड़ा है दाता धोबी इस शहर में, सुबह वस्त्र लेकर दे देता दोपहर में । कौन चतुर है यहां पर तेरे कहने में, सभी चतुर हैं पर धन पर त्रिया हरने में । ऐसा उत्तर सुनकर राही फिर तब बोला, कैसे जीते हो यहां पर हे! तू भोला । विष में विष कीड़ा रहता है जीवित जैसे, इस कुदेश कुग्राम में हम भी जीवित वैसे ।

वेद शास्त्र का ध्वनि न गुंजित, विप्र ना धोए पैर जहां पर । होम, स्वाहा यज्ञ जहां पर वर्जित, श्मशान सा ही उनका घर ।

सत्य है माता धर्म है भ्राता पुत्र क्षमा है, पिता है ज्ञान। पत्नी शांति मित्र दया है यही 6 बंधु तू मान |

नहीं ठिकाना है इस तन का, वैभव सदा नहीं है रहता । मृत्यु सदा निकट है रहती, अमर धर्म का संग्रह कर्ता ।

निमंत्रण उत्सव है लाता ब्राह्मण जन में, हरी घास गायों के हेतु उत्सव लाए। परदेसी पति का आना नारी का उत्सव है, संत जनों में कृष्ण चरण का उत्सव छाए ।

पर त्रिया माता जो माने, परधन मिट्टी सा जो जाने । अपना सा सब लगता प्राणी, जगत इन्हीं को पंडित माने ।

तत्परता हो धर्म में जिनकी, मुख में रहती मधुमय बाणी । उत्साहित हो दान कर्म में, शस्त्रों में हो चक्रपाणि ।

निश्चल व्यवहार मित्र संग में, गुरु के संग में रखे नम्रता । अंतःकरण में गंभीरता हो, आचार में हो शुद्ध पवित्रता ।

गुरु के प्रति रखे रसिकता, सुंदरता हो जिनके रूप में । स्वच्छ भावना मन के अंदर, भक्ति भाव हो शिव स्वरूप में । ऐसा गुणी कहे पुराण, और न कोई रघुवर राम ।

राघव ! हे रघुपति ! आप, ना कोई उपमा तेरे साथ । अचल सुमेरु पर है पर्वत, कल्पवृक्ष है लकड़ी काठ । चिंतामणि है पत्थर पाहन, सूरज में है अग्नि अनल । चारु चंद्र भी घटत बढ़त हैं, सागर का है खारा जल । दानी बलि हैं दैत्य कुल से, बिना अंग के रहते काम । कामधेनु भी पशु कहाए, किससे तौलें तुझको राम ।

विनय सीखना राजपुत्र से, पंडित से लो अच्छी बोली । मिथ्या झूठ जुआरी से लो, त्रिया से लो छल की गोली ।

बिना सोचे धन का व्यय कर्ता, कलह है करता बिना सहायक । सब वय त्रिया हेतु कामुक, नष्ट हो निश्चय ये नालायक ।

हीं चाहिए चिंता करना, ज्ञानी को कभी भोजन की । ज्ञान धर्म में समय बिताएं, जन्मजात जन्मे ये जन की।

भरा घड़ा बूंद गिरते क्रम से, हेतु यही धन विद्या धर्म के ।

शठता का स्वभाव नहीं जाता है शठ से, आयु ढल जाने पर भी शठ रहता है खल । न कटुता को छोड़ कभी है मीठा होता, पका हुआ हो या कच्चा हो इंद्रायण फल ।

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